पद्मश्री उषाकिरण खान एक ज़िंदादिल, साहसिक और जड़ सामंती व्यवस्था को चुनौती देने वाली महान लेखिका थीं। अब जब उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया है, तो उन्हीं की लिखी कहानी ‘अड़हुल की वापसी‘ की एक पंक्ति, ‘नहीं अड़हुल, वो रही नहीं, मुझे अकेला छोड़ ऊपर चली गई‘ याद आती है। उषाकिरण खान लिखने की कला में पारंगत थीं। उनका कहना था कि ‘लिखना एक अभ्यास है. एक लेखक को पूरी ज़िंन्दगी अभ्यास करते रहना चाहिए।‘
उषाकिरण ने आजीवन खूब लिखा। वो भले ही अपने करियर में इतिहास की प्रोफेसर बन गईं। लेकिन लिखाई से उनका मोह कभी भंग नहीं हुआ। उन्हों आजीवन खूब लिखा। बच्चों की कहानियों से लेकर यौवन के प्रेम प्रसंगों तक, नाटक, उपन्यास, आलेख, संस्मरण। शायद ही कोई विधा बची हो, जिसे उषाकिरण ने स्पर्श न किया है। उषाकिरण खान की साहित्य की दुनिया में अपनी एक अलग पहचान थी। उन्होंने हर मुद्दे पर लिखा और अपने अंतिम दिनों तक लिखती ही रहीं।
क्रांतिकारी जमात का मन पर गहरा प्रभाव
बचपन की बात करें, तो उषा किरण खान का जन्म 24 अक्टूबर, 1945 को बिहार के दरभंगा जिले के लहेरियासराय में हुआ था। उनके पिता गांधी जी के विचारों से बहुत प्रभावित थे, जिसका अंश उषाकिरण की जिंदगी में भी देखने को मिलता है। वो अपने साहित्य के जरिए गंभीर मर्म को उजागर करती थीं। हालांकि क्रांतिकारी जमात का भी उनके मन पर गहरा प्रभाव था, लेकिन उनकी भाषा बेहद अदब मिज़ाज थी।
उषाकिरण की शादी तो बहुत कम उम्र में हो गई लेकिन उन्होंने पढ़ाई के प्रति अपनी लगन नहीं कम होने दी। शादी के बाद गृहस्थी का भार संभालते हुए उन्होंने अपनी पढ़ाई भी जारी रखी। डिग्री ली और फिर प्रोफेसर भी बनी। उन्होंने कई साहित्य और संस्कृति के संगठनों में भी बड़ी भूमिका निभाई। उन्होंने साहित्य में रुचि रखने वाली महिलाओं के लिए ‘आयाम‘ नाम की संस्था की स्थापना भी की। ये संस्था महिलाओं को साहित्य की दुनिया से जोड़ने के लिए प्रयासरत थी।
‘हीरा डोम‘, ‘पीड़ा के दंश‘, ‘अड़हुल की वापसी‘ जैसी कहानियां उषाकिरण की लेखनी को अमर करती हैं। तो वहीं, ‘भामती: एक अविस्मरणीय प्रेमकथा’, ‘सृजनहार’, ‘पानी पर लकीर’, ‘फागुन के बाद’, ‘सीमांत कथा’ और ‘हसीना मंजिल’ समेत कई उपन्यास उनके अद्भूद् साहितिक ज्ञान से दुनिया का परिचय करवाते हैं। उन्हें साल 2011 में उनके मैथिली भाषा में लिखे गए उपन्यास ‘भामती: एक अविस्मरणीय प्रेमकथा’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, 2012 में भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद द्वारा उनके उपन्यास ‘सृजनहार’ के लिए कुसुमांजलि साहित्य सम्मान और 2015 में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री सम्मान भी प्रदान किया गया।
साहित्य की दुनिया में दूसरों से अलग
उषाकिरण के लेखन की शैली ही उन्हें इस साहित्य की दुनिया में दूसरों से अलग बनाती है। उनकी कहानियां प्रेम की नई परिभाषा गढ़ती हैं, उसे नई लय और भाव के अनोखे ज़ायके से भर देती हैं। उनमें मुहावरों और लोकोक्तियों का अलग ढ़ंग से इस्तेमाल है। उनकी कई कहानियां ठेठ कोसी क्षेत्र के गांव की कहानियां हैं, जिसके लेखन में गांव घर की भाषा की खुशबू है। इसमें कई अलग–अलग रंग नज़र आते हैं।
ऐसा कहा जाता है कि उषाकिरण की ईश्वर में आस्था तो थी पर वह पूजा–पाठ में यकिन नहीं रखती थीं। उनकी कहानियां और उपन्यास के किरदारों में भी उनकी जिंदगी की कई बार झलक देखने को मिलती है। वो अपने कहानी के किरदारों के जरिए समाज के अलग–अलग पहलुओं को सभी के सामने रखती थीं। वो सिर्फ बिहार ही नहीं, समूचे देश की लेखिकाओं और लेखकों के लिए प्रेरणास्रोत थीं।
उनके निधन पर बिहार के मुख्यमंत्री ने एक शोक संदेश भी साझा किया। उन्होंने अपने संदेश में कहा, “डॉ. उषा किरण खान के निधन से हिन्दी एवं मैथिली साहित्य जगत् को अपूरणीय क्षति हुयी है।…ईश्वर से प्रार्थना है कि दिवंगत आत्मा को चिर शांति व उनके परिजनों को दुख की इस घड़ी में धैर्य धारण करने की शक्ति प्रदान करे।”
उषाकिरण का जाना निश्चित ही साहित्य की दुनिया में अपनी पहचान स्थापित कर रही महिलाओं के लिए एक शोक की खबर है। लेकिन उनकी लेखनी सदियों तक सभी के दिलों में जिंदा जरूर रहेगी, जो स्त्रियों को आगे बढ़ने की प्रेरणा देती रहेगी।