बेटियां कुदरत का दिया वो नायाब तोहफा हैं, जिनके रहने से सिर्फ घर ही नहीं बल्कि मोहल्ला भी रोशन रहता है। ये रोशनी बनना ही बेटियों के असल जीवन का संघर्ष है। उनका पहला संघर्ष तो मां की कोख से ही शुरू हो जाता है। हमारे समाज में कुछ नहीं अपितु बहुत सारे घर ऐसे हैं, जहां बेटी को जन्म तक नहीं लेने दिया जाता। अगर वो किसी तरह पैदा हो भी जाती है, तो उसे महज एक अपशगुन ही मान लिया जाता है। उनकी परवरिश भी बोझ समझकर की जाती है और शादी के बाद भी उन्हें दूसरे घर से आई हुई लड़की मान कर बार–बार उनका तिरस्कार किया जाता है। इसके बाद भी बेटियों का संघर्ष खत्म नहीं होता बल्कि ये आगे पत्नी, मां और फिर दादी अनंतकाल तक चलता ही जाता है।
हालांकि अब ये तस्वीर थोड़ी ही सही लेकिन बदल जरूर रही है। और इसी बदलाव को व्यापक रूप देने के लिए भारत ही नहीं दुनियाभर में सितंबर के आखरी सप्ताह के रविवार को बेटियों के नाम किया गया है। ताकि बेटियों के प्रति लोगों में प्यार की भावना जगाई जा सके, उन्हें और जागरूक किया जा सके और बेटा–बेटी का फर्क समाज से खत्म हो सके। इस दिन की पहल 11 अक्टूबर 2012 को हुई थी, जब संयुक्त राष्ट्र ने इसे आधिकारिक तौर पर डॉटर्स डे डिक्लेयर किया था। इस दिन को देश–विदेश में अलग–अलग थीम के साथ मनाया जाता है। हालांकि सबका फोकस बेटियां ही होती हैं।
एक सकारात्मक शुरुआत
वैसे तो महज़ एक दिन से कुछ खास नहीं बदलने वाला, लेकिन ये एक सकारात्मक शुरुआत तो मानी ही जा सकती है। ये दिन आपको एक बार तो बेटियों के करीब ले ही जाता है। आज बेटियां खुद भी अपनी तक़दीर बदल रही हैं। मिशन मंगल से लेकर चंद्रयान तक देश की महिला वैज्ञानिकों ने झंडा गाड़ा है। खेल के मैदान से राजनीति के शिखर तक महिलाएं देश में चमक रही हैं। हालांकि ये भी महज कुछ लोगों की ही कहानी है, लेकिन ये कहानियां बाकि हज़ारों–लाखों को आगे बढ़ने की प्ररेणा जरूर देती है।
कई घरों में बेटियों से उनके मां–बाप का खास रिश्ता देखा जाता है। वो अपनी बेटी में ही अपना संसार देखते हैैं। उसे बचपन से आज़ादी का पाठ पढ़ाने के साथ ही आत्मनिर्भर रहने की भी पूरी शिक्षा देते हैं। इसके बाद शादी और फिर आगे की जिंदगी में भी पराया धन समझकर उसका साथ नहीं छोड़ते। यही शायद वो बेटियां भी होती हैं, जो खुलकर जी पाती हैं और बेफिक्री से मुस्कुरा भी पाती हैं। ये वो बेटियां भी हैं जो अपने मां–बाप का किसी भी बेटे से बढ़कर ध्यान रखती हैं। और प्यार के बंधन में बंधना तो चाहती हैं लेकिन अपनी आज़ादी की शर्त पर नहीं।
सालों से नारीवादी आंदोलन का लक्ष्य ही बेटियों को लेकर समाज में जागरूकता लाना रहा है। बेटियों के हक़ से उन्हें सशक्त करना रहा है। ऐसे में इन दिन या किसी भी दिन बेटियों की महत्ता उतनी ही होती है, बस हम और अपना नज़रिया नहीं बदल पाते। अब बदलते परिदृश्य में भी बेटियों को दिल में जगह तो मिलनी आसान हो गई है लेकिन जायदाद यानी विल में वो अपनी भी संघर्ष कर रही हैं। ये संघर्ष उनका सदियों से जारी है और आगे भी कई दशकों तक चलता रहेगा। तो ऐसे में अगर आप वाकई अपनी बेटी के लिए इस दिन कुछ आखस करना चाहते हैं तो उसे अपनी विल का तोहफा दीजिए। इससे आपकी और आपकी बिटिया दोनों का जीवन बदल जाएगा। इसमें और प्यार और विश्वास का रंग घुल जाएगा।
इस खास दिन पर कमला भसीन की लिखी ये पंक्तियां जरूर पढ़ें…
एक पिता अपनी बेटी से कहता है –
पढ़ना है! पढ़ना है! तुम्हें क्यों पढ़ना है?
पढ़ने को बेटे काफ़ी हैं, तुम्हें क्यों पढ़ना है?
बेटी पिता से कहती है –
जब पूछा ही है तो सुनो मुझे क्यों पढ़ना है
क्योंकि मैं लड़की हूँ मुझे पढ़ना है
पढ़ने की मुझे मनाही है सो पढ़ना है
मुझ में भी तरुणाई है सो पढ़ना है
सपनों ने ली अंगड़ाई है सो पढ़ना है
कुछ करने की मन में आई है सो पढ़ना है
क्योंकि मैं लड़की हूँ मुझे पढ़ना है
मुझे दर–दर नहीं भटकना है सो पढ़ना है
मुझे अपने पाँवों चलना है सो पढ़ना है
मुझे अपने डर से लड़ना है सो पढ़ना है
मुझे अपना आप ही गढ़ना है सो पढ़ना है
क्योंकि मैं लड़की हूँ मुझे पढ़ना है
कई जोर जुल्म से बचना है सो पढ़ना है
कई कानूनों को परखना है सो पढ़ना है
मुझे नये धर्मों को रचना है सो पढ़ना है
मुझे सब कुछ ही तो बदलना है सो पढ़ना है
क्योंकि मैं लड़की हूँ मुझे पढ़ना है
हर ज्ञानी से बतियाना है सो पढ़ना है
मीरा–राबिया का गाना गाना है सो पढ़ना है
मुझे अपना राग बनाना है सो पढ़ना है
अनपढ़ का नहीं ज़माना है सो पढ़ना है
क्योंकि मैं लड़की हूँ मुझे पढ़ना है।