किसी ने सही कहा है कि महिलाएं काम से लौटकर भी काम पर ही लौटती हैं। ये दोहरे काम का संघर्ष महिलाओं को अपने प्रति लापरवाह और असंवेदनशील बनाता जा रहा है। वो रोज़ बिना रुके, बिना थके पूरे घर का तो ध्यान रख लेती है, लेकिन जब बात उसके अपने काम की आती है, तो वो आसल कर जाती है और यही कारण भी है कि महिलाएं पुरुषों से ज्यादा जल्दी बिमारियों का शिकार होती हैं। उन्हें भागदौड़ में अपनी केयर करना ध्यान ही नहीं रहती। और हां रहे भी कैसे, वो एक जान सुबह से रात तक लगातार लगी रहती है, बावजूद इसके कई तरह के तानों का शिकार भी होती है।
आजकल औरतें अपना रूख आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ा रही हैं, यानी अपनी नौकरी को प्राथमिकता दे रही हैं। ये अच्छा भी है क्योंकि ये उन्हें दूसरों से पैसे मांगने या अपनी इच्छाओं को मारने से बचाता है। हालांकि इतनी सशक्त होने के बाद भी वो अपने घरेलू काम और जिम्मेदारियों को ना नहीं कह पा रही है। जिसके चलते उस पर दोहरे काम की मार पड़ रही है। वो ऑफिस जाने से पहले घर की साफ–सफाई और सबके खाने का देख कर निकलती है। वापसी में वो फिर थकी–हारी किचन की और लौटती है। उसका जीवन ङर और दफ्तर के बीच ही पिस कर रह जाता है।
‘मां–बाप ने क्या सिखाया है‘
वैसे ऐसा नहीं की सभी घरों की यही कहानी है, लेकिन ज्यादातर घरों की ये सच्चाई जरूर है। आज भी घर के सारे काम एक औरत से ही अपेक्षित हैं। अगर वो इसके अनुकूल नहीं है, तो उसे ताना दिया जाता है कि मां–बाप ने क्या सिखाया है। फिर चाहे वो कितनी भी जानकार ज्ञानी या अपने काम में परफेक्ट क्यों न हो। हमेशा ताने लड़की के घर वालों को ही दिए जाते हैं।
हम कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो आज भी हमारा समाज ज्यादा नहीं बदला। अभी भी लड़की दहेज कितना ले आई, इस पर उसके घर की इज्जत निर्भर है। पति, ससुराल वाले नौकरी करने देते हैं, इसे एक एहसान की तरह देखा जाता है। जो चाहो पहनों, इसमें ससुरालवालों की इज़ाजत कम और मेहरबानी ज्यादा झलकती है। हम कहने को तो चांद पर पहुंच गए, लेकिन हमारी सोच आज भी जस की तस ही बनी हुई है, सिर्फ उसमें अब एक सजावट कर दी जाती है। बहु पढ़ी–लिखी कमाऊ चाहिए, लेकिन उसे चलाना अपने हिसाब से ही है, उसको रखना अपनी सोच से ही है। ये किस्सा किसी एक या दो घर का नहीं बल्कि हज़ारों–लाखों घरों का है।
लड़कों को आराम और ऑर्डर की लत
यहां लड़कों की भूमिका बहुत अहम है, जो शुरू से ज्यादातर घरों में राजकुमार की तरह पलते हैं और शादी होने पर राजा बन जाते हैं। उन्हें हमेशा आराम और ऑर्डर की लत लगाई गई होती है। जो पहले मां और फिर बीवी के भरोसे पलते हैैं, यहीं उनका ज़ोर चलता है और वो इन्हीं लोगों को अपनी किंगडम का नौकर समझ लेते हैं। कुछ जो इनसे बेहतर हैं, वो कभी–कभी अपनी बीवी का हाथ बटा देते हैं, लेकिन इसे एक बड़े उदारवाद और एहसान की तरह दिखाते हैं। जैसे उन्होंने मदद नहीं हमारी किस्मत ही बदल दी हो। और हां महज़ विकेंड पर दो–चार काम कर देने से कोई काम आसान नहीं कर देता। बल्कि ये तो रोज़ाना होना चाहिए। जब एक महिला घर और दफ्तर दोनों की जिम्मेदारी संभाल सकती है, तो मर्द क्यों नहीं।
हमें यहां ये समझना होगा कि ये सब पितृसत्ता की देन है। उसी पितृसत्ता की जिसमें औरत को कमतर समझा जाता है। उसे जान–बूझ कर आगे नहीं बढ़ने दिया जाता क्योंकि वो अगर कुछ बन गई तो मर्दो की सत्ता खतरे में पड़ जाएगी। औरतों को अक्सर घरेलू काम से जोड़कर देखा जाता है। खाना बनाना, घर देखना, बच्चों को पालना और तमाम जिम्मेदारियां अकेले महिला के कंघों पर डाल दी जाती है। जबकि इसमें आधा हिस्सा मर्द का और उसके घरवालों का भी होना चाहिए।
अपना घर छोड़ कर दूसरे को अपनाना आसान नहीं
एक लड़की अपना सब कुछ छोड़कर शादी के बाद एक अंजान घर में आती है। यहां उसका सबसे बड़ा सहारा कौन होता है, उसका जीवनसाथी, जिसे न सिर्फ उसकी मदद करनी चाहिए, अपितु उसके लिए स्टैंड भी लेना चाहिए। पति–पत्नी गाड़ी के वो दो जरूरी पहिए हैं, जिसमें से एक भी पंचर हो जाए तो गाड़ी चल नहीं पाएगी। लेकिन हमारे यहां ज्यादातर गाड़ी एक पहिए पर ही घसीटते हुए चलती है। जहां स्त्री अपना सब कुछ दांव पर लगाने के बाद भी हर बार ताने ही सुनती है।
उम्मीद है अब समय बदलाव का है और लड़के न सही लेकिन लड़कियां अपने लिए खुद स्टैंड लेना सिखेंगी। वो ना कहना सिखेंगी, फिर वो पति को हो या ससुराल वालों को। क्योंकि किसी घर की जिम्मेदारी सिर्फ एक महिला की नहीं है। इसे भी आराम करने, आज़ाद होकर घूमने और छुट्टी मनाने का बराबर हक़ है। और यही जिंदगी भी है और यही उसके संघर्ष का हासिल भी।