संसद का विशेष सत्र आज यानी सोमवार, 18 सितंबर से शुरू हो गया है। सरकार इसमें अपनी प्राथमिकता के कई बिल पास करवाने का एजेंडा पहले ही जनता और विपक्ष के सामने रख चुकी है। लेकिन विपक्ष ने भी इस विशेष सत्र को विशेष बनाने के लिए महिला आरक्षण बिल पारित करने की मांग उठाई है। जिसे लेकर अभी तक सरकार की ओर से कोई स्पष्ट जवाब नहीं आया है।
आप और हम बीते कई दशकों से महिला आरक्षण बिल का नाम सुन रहे हैं। इसके पारित होने की आस भर लिए ही कई महिलाएं दिवंगत हो गईं, तो वहीं एक नई पीढ़ी हमारे सामने संसद तक पहुंच गई। लेकिन ये बिल जस का तर लटका रहा। आज एक बार फिर ये बिल चर्चा में है, तो आइए जान लेते हैं कि इस बिल ने अब तक कितना लंबा सफर तय किया है।
राजनीति में महिलाओं का प्रतिनित्व बेहतर करने के उद्देश्य से महिला आरक्षण बिल की जरूरत महसूस हुई। जब देश आज़ाद हुआ, तो संविधान सभा में भी महिला आरक्षण को लेकर बहसें हुईं। 1993 में दो संविधान संशोधनों के जरिए पंचायतों और निकायों में महिला आरक्षण की व्यवस्था हुई। इसके बाद 12 सितंबर 1996 को तत्कालिन एचडी देवगौड़ा की सरकार ने पहली बार महिला आरक्षण विधेयक को पेश करने की कोशिश की थी।
गठबंधन की सरकार और चुनौतियां
तब चुनौतियां कुछ और थीं, ये एक गठबंधन की सरकार थी और मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद इस सरकार के दो मुख्य स्तंभ थे, जो महिला आरक्षण के घोर विरोधी थे। जिससे ये बिल आगे ही नहीं बढ़ सका। लेकिन फिर जून 1997 में एक बार फिर इस विधेयक को पास कराने का प्रयास हुआ। उस वक्त शरद यादव ने इस विधेयक की ये कहते हुए निंदा की थी कि ”परकटी महिलाएं हमारी महिलाओं के बारे में क्या समझेंगी और वो क्या सोचेंगी।” ये एक विवादास्पद टिप्पणी थी, जो महिलाओं को आपस में ही बांटने की कोशिश थी।
इसके बाद साल 1998 में 12वीं लोकसभा में अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए की सरकार में एन थंबीदुरई (तत्कालीन क़ानून मंत्री) ने इस विधेयक को पेश करने की कोशिश की, तब राष्ट्रीय जनता दल के सांसद सुरेंद्र प्रसाद यादव लोकसभा अध्यक्ष जीएमसी बालयोगी की सीट के पास पहुंच गए और उनके हाथ से काग़ज छीनकर फाड़ दिया। इस हंगामे के बीच एक बार फिर बिल लटक गया।
13वीं लोकसभा में साल 1999 में इस विधेयक को एक बार फिर पेश करने की कोशिश की गई। उस वक़्त भी इसका जोरदार विरोध ही देखने को मिला, और इसलिए ये संविधान संशोधन विधेयक नियमों के अनुसार शोर–शराबे में पारित नहीं हो सका। साल साल 2003 में एनडीए सरकार ने फिर कोशिश की लेकिन प्रश्नकाल में ही सांसदों के हंगामे के चलते ये पारित हो सका।
बीजेपी में मतभेद
साल 2010 में यूपीए की मनमोहन सिंह सरकार ने ये बिल राज्यसभा में तो पारित करवा दिया। इस विधेयक को राज्यसभा में इस मक़सद से लाया गया था कि अगर यह इस सदन में पारित हो जाता है तो, इससे उसकी मियाद बनी रहती। तब बीजेपी की तरफ से अरुण जेटली ने आश्वासन दिया था कि बीजेपी का इस बिल को पूरा समर्थन है। इसके अलावा इस विधेयक को वामदलों और जदयू का भी समर्थन हासिल था। लेकिन बीजेपी के गोपीनाथ मुंडे जैसे प्रभावशाली ओबीसी नेताओं ने इस विधेयक के विरोध किया। उन्होंने अपने साथ बाक़ी ओबीसी सांसदों को जुटाकर लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज को यह साफ़ संदेश दे दिया कि अगर इसके पक्ष में वोट आया तो वे इसके ख़िलाफ़ वोट करेंगे और पार्टी की व्हिप नहीं मानेंगे।
बस फिर क्या था, बीजेपी दुविधा में पड़ गई और कांग्रेस गठबंधन की मजबूरी और बहुमत की उलझन में उलझ कर रह गई। तब से लेकर अब तक ये बिल जस का तस लटका हुआ है। अब बीजेपी की मोदी सरकार बहुमत से सत्ता में है और महिलाओं की हितैषी होने का दावा भी करती है। लेकिन अभी तक उसका रूख इस बिल पर साफ नहीं है। अगर इस विशेष सत्र में वाकई ये बिल पास हो जाता है, जिसकी उम्मीद कम है, तो ये ऐतिहासिक सत्र होगा।