एक रूढ़िवादी समाज में अक्सर औरतें पितृसत्ता की भेंट चढ़ जाती हैँ। उनके रहने, खानेे, पसंद, नापसंद सब पर उनके परिवार का दबाव होता है। उनके जीवन से जुड़े तमाम विचारों, उम्मीदों और अनेकों संभावनाओं को खोजने की बजाय उन्हेें कमजोर श्रेणी में ला कर उनके हर फैसले के लिए दूसरों पर आश्रित कर दिया जाता है। उन पर तमाम तरीके से मानसिक और पारिवारिक दबाव बनाए जाते हैं। इसी सत्ता को अपनी टिप्पणी के जरिए केरल हाई कोर्ट ने चुनौती दी है।
केरल हाई कोर्ट ने गुरुवार, 19 अक्टूबर को अपने एक फैसले में कहा कि महिलाएं अपनी मां या सास की गुलाम नहीं हैं। उनके पास अपना खुद का दिमाग है। अदालत ने इस बात पर भी आपत्ति जताई कि फैमिली कोर्ट ने अपने आदेश में एक महिला को कैसे तलाक के मुद्दे पर उसकी मां और सास की बात सुनने के लिए कहा था।
क्या है पूरा मामला?
दरअसल ये पूरा मामला एक तलाक केस को लेकर था। जो कि कोट्टाराकारा के फैमिली अदालत में पेंडिंग है। महिला ने इस मामले को अपनी सुविधा अनुसार थालास्सेरी की एक फैमिली कोर्ट में ट्रांसफर करने का आग्रह किया, जो माहे के करीब है। फिलहाल महिला माहे में ही अपने बच्चे के साथ रहती है और नौकरी करती है। उसका कहना था कि वो तलाक की कार्यवाही के लिए कोट्टाराकारा की फैमिली अदालत बार–बार जाने में असमर्थ है।
महिला का पति इस ट्रांसफर के विरोध में था और उसका कहना था कि उनकी मां मामले के लिए थालास्सेरी की यात्रा नहीं कर सकतीं क्योंकि वो 65 वर्ष की हैं। इसके अलावा पति के वकिल ने इस पूरे मामले को अदालत के बाहर निपटाने और त्रिसूर की अदालत के उस फैसले का भी जिक्र किया जिसमें महिला को उसकी मां और सास की बात मानने को कहा गया था।
इस मामले में महिला की पहली तलाक याचिका त्रिसूर कोर्ट ने ये कहते हुए खारिज़ कर दी थी कि उसकी शिकायतें सामान्य मतभेद का हिस्सा हैं। इस मामले में हाई कोर्ट ने फैमिली कोर्ट के आदेशों की मौखिक आलोचना करते हुए कहा कि किसी महिला के फैसले को उसकी मां या उसकी सास के फैसले से कमतर नहीं माना जा सकता। क्योंकि महिला के पास अपना खुद का दिमाग है।
‘महिला के पास है अपना खुद का दिमाग‘
हाई कोर्ट ने पति को फटकार लगाते हुए ये भी कहा कि “महिला के पास अपना खुद का दिमाग है। क्या आप उसे बांधेंगे और मध्यस्थता के लिए दबाव डालेंगे? यही कारण है कि वो आपको छोड़ने के लिए मजबूर हुई। अच्छा व्यवहार करो, एक इंसान बनो।”
इसमें कोई दो राह नहीं आज भी समाज में महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ता है। पितृसत्ता महिलाओं को तमाम तरह के बंधनों में बांध कर उनकी इच्छा के विरुद्ध रहने और जीने के लिए मजबूर करती है। और इसमें बहुत हद तक उनकी मां और सास का हाथ होता है। जैसा की केरल हाई कोर्ट की टिप्पणी से भी साफ समझ में आता है।
बचपन से घरों में लड़कियों से तो काम करवाया जाता है लेकिन लड़कों को पढ़ाई करने की नसीहत दी जाती है। लड़कियों को घर संभालने के गुण सिखाए जाते हैं तो वहीं लड़कों को बाहर खेलने–घूमने की खुली छूट होती है। ये पितृसत्ता ही है, जो एक महिला को दूसरी महिला के खिलाफ खड़ा कर देती है। मां बचपन से बेटी को सहने का पाठ पढ़ाती है तो वहीं सास उसे कंट्रोल में रखने के सारे जतन करती है। यहीं से असली पितृसत्ता फलती–फूलती है।
इज्जत और संस्कारों का दबाव
अक्सर लड़कियों पर घर की इज्जत और संस्कारों का दबाव बनाया जाता है। उन्हें अपनी इच्छाओं को मार कर परिवार के लिए जीने और त्याग करने के लिए तैयार किया जाता है। उन्हें आत्मनिर्भरता से ज्यादा परनिर्भरता के बोझ तले दबा दिया जाता है। उन्हें बताया जाता है कि परिवार केे आगे नौकरी का कोई मोल नहीं, परिवार है तो सब है। अब परिवार के लिए इतना तो करना ही पड़ता है। जो औरत परिवार के बारे में सोचती है, वही अच्छी औरत होती है, जैसी तमाम बातें शुरू से ही उनके कानों में भरी जाती हैँ।
ऐसे में ये ज्यादातर देखा जाता है कि लड़कियां जैसे–तैसे पढ़–लिखकर आगे बढ़ भी जाती हैं, तो पितृसत्ता उन्हें नौकरी और परिवार के दोराहे पर लाकर खड़ा कर देती है। उन्हें कई बार मजबूरी में हारकर नौकरी छोड़नी पड़ जाती है। लेकिन इसे महानता के तौर पर पेश किया जाता है। इसके उदाहरण दिए जाते हैं, कि देखो कैसे उसने परिवार के लिए अपनी नौकरी छोड़ दी।
हमारे समाज में आज भी एक महिला को घर की जिम्मेदारी संभालने वाले रोल में ही ज्यादातर देखा जाता है। इतना ही इनके घरेलू कामों को भी खास खास महत्व नहीं दिया जाता। कितना भी वो करें, अक्सर ताना मिल ही जाता है कि तुम करती ही क्या हो। ऐसे में बहुत जरूरी है कि महिला अपने आप को सशक्त बनाए और अपनी आत्मनिर्भरता किसी भी कीमत पर न छोड़े।