“जब तक दूसरे के घर में गलत हो रहा है, तब तक कोई कुछ नहीं बोलेगा। लेकिन ये याद रखना…कि अगर दूसरे की बेटी के साथ गलत हो रहा है, तो तुम्हारी बेटी के साथ भी गलत होगा। इसलिए बोलना पड़ेगा।”
ये डायलॉग नेटफ्लिक्स पर स्ट्रीम हो रही फिल्म ‘भक्षक‘ का है। फिल्म सच्ची घटनाओं से प्रेरित है और कुछ हद तक बिहार के मुजफ्फरपुर बालिका गृह कांड की कहानी को भी बयां करती है। इस फिल्म में भूमि पेडनेकर मुख्य भूमिका में हैं, जो एक पत्रकार का किरदार निभा रही हैं। इस फिल्म का निर्देशन पुलकित ने और निर्माण शाहरुख खान की फिल्म निर्माण कंपनी रेड चिलीज ने किया है।
फिल्म की कहानी सीधी–सपाट है, जहां सिस्टम और अपराधियों की साठगांठ को बिना किसी लाग–लपेट के दिखाया गया है। फिल्म में बालिका आश्रय गृह में होने वाले जघन्य अपराध के बारे में खुलकर बात होती है। जहां सिस्टम अनाथ, बेसहारा और सितम ढाई लड़कियों को सहारा देने का दावा करता है। फिल्म में छोटे पुलिस स्टेशनों में व्याप्त अव्यवस्था से लेकर राजनीति में पावरप्ले तक सबकुछ साफगोई के साथ दिखाया गया है।
सच को दिखाना और सिस्टम से सवाल करना
यहां भूमि पेडनेकर कोई बड़ी पत्रकार नहींं हैं। वो अपने चैनल कोशिश न्यूज़ को बस जैसे–तैसे चलाने की कोशिश करती हैंं। हालांकि भूमि के अंदर सच को दिखाने, सिस्टम से सवाल करने और अपराधियों से खुलकर लोहा लेने में कोई हिचक नहीं है। वो अपनी इसी आदत के चलते पति, परिवार और रिश्तेदारों की आंखों में भी खटकने लगती हैं। लेकिन सच्ची पत्रकारिता को लेकर उनकी जिद्द ज़रा भी कम नहीं होती।
भूमि को स्ट्रगल के दौरान ही एक बालिकागृह की स्टोरी हाथ लगती है। जिसकी घोर लिप्तता की रिपोर्ट तो है, लेकिन दो महीने बीत जाने के बाद भी उसपर कोई कार्यवाही नहीं होती। और यही सवाल भूमि पूरी फिल्म के दौरान सिस्टम से पूछती हैं। इस बालिका गृह के संचालन में एक पत्रकार की ही भूमिका होती है, जिसकी पहुंच काफी ऊपर यानी सिस्टम में बैठे नेताओं से होती है। पूरा मामला कुछ ऐसा होता है कि मेन स्ट्रीम मीडिया तक इसमें हाथ नहीं डालती।
लेकिन भूमि का किरदार इस फिल्म को एक अलग एंगल से देखता है। वो सवाल करती हैं, “दूसरों के दुख में दुखी होना भूल गए हैं क्या। क्या आप अब भी अपनी गिनती इंसानों में करते हैं क्या। या अपने आप को भक्षक मान चुके हैं।” ये सवाल आपको अंदर तक झकझोंर देता है। और इसकी वजह ये है कि ये एक कड़वी सच्चाई है।
सोशल मुद्दे को उठाती फिल्म
फिल्म में संजय मिश्रा और आदित्य श्रीवास्तव ने भी अपने किरदार के साथ भरपूर न्याय किया है। आदित्य यहां नेगेटिव रोल में हैं और उनकी देख–रेख में ही ये बालिका गृह चलता है। इस किरदार से आपको वास्तव में नफरत हो जाएगी। क्योंकि ये सबका मास्टर माइंड है और इसे अपने किए पर बिल्कुल पछतावा नहीं है।
फिल्म एक ऐसे सोशल मुद्दे को उठाती है, जिस पर शायद कोई बात नहीं करना चाहता। हम महिलाओं के साथ किसी भी बड़ी घटना को तब जानते हैं, जब वो राष्ट्रीय अखबार की सुर्खियों तक पहुंच पाती है। लेकिन हर राज्य और उसके सुदूर इलाकों की घटनाओं और अपराध का क्या, जिसे पुलिस रिपोर्ट तक करने से मना कर देती है।
महिला सुरक्षा का दावा हर सरकार करती है। उसका महिला विकास और समाज कल्याण मंत्रालय भी इसी प्रतिबद्धता को दोहराता है। लेकिन इस फिल्म के जरिए ये स्पष्ट करने की कोशिश की गई है कि कैसे उन्हीं के लोगों का सपोर्ट और संरक्षण अपराधियों को मिला होता है। वे किसी विकास योजना का क्रेडिट तो बड़ी जल्दी ले लेते हैं लेकिन अपराध के लिए उनकी जिम्मेदारी शून्य है।
इस फिल्म मनोरंजन से ज्यादा एक एक सामाजिक उद्देश्य के लिए बनाई गई है। और इसलिए, इसे अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचना ही चाहिए। इसका मैसेज इतना स्ट्रांग है कि आपको फिल्म के खत्म होने के बाद भी इसका प्रभाव महसूस होता रहेगा। आपके मन में कई सवाल उठते रहेंगे, जिनका जवाब शायद किसी के पास भी न हो।
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