फिल्म: लापता लेडीज़
डायरेक्टर : किरण राव
कास्ट : प्रतिभा रांटा, स्पर्श श्रीवास्तव, नितांशी गोयल, रवि किशन
स्टार: 4.5/5
किरण राव करीब एक दशक से ज्यादा समय के बाद अपनी डायरेक्शन में बनी फिल्म Laapataa Ladies लेकर दर्शकों के सामने आ रही हैं। ये फिल्म गांव–देहात के परिदृश्यों को समेटे कई जरूरी मुद्दों को उठाती है। इसमें शादी–ब्याह के बैकग्राउंड को लेकर घूंघट, दहेज और घरेलू हिंसा जैसे गंभीर मुद्दे दिखाने की कोशिश की गई है। इसके साथ ही शासन–प्रशासन में जमी भ्रष्टाचार की जड़ को भी दिखाया गया है। इस फिल्म की यूएसपी यही है कि इतने सीरियस मुद्दों को भी फिल्म बहुत ही लाइट अंदाज में पेश करती है, जिसके चलते कई बार आपको आंसू के साथ ही हंसने पर भी मजबूर होना पड़ता है।
फिल्म की डायरेक्टर किरण राव ने एक स्क्रीनिंग के दौरान बताया था कि ये फिल्म बिप्लब गोस्वामी की एक पुरस्कार विजेता कहानी पर आधारित है। जिसमें घूंघट के चलते दो नई नवेली दुल्हनों की ट्रेन में अदला–बदली हो जाती है। ये अदला–बदली ही पूरी कहानी समेट लेती, लेकिन किरण राव ने स्क्रीन प्ले राइटर स्नेहा देसाई के साथ मिलकर इसमें कई नए कैरेक्टर और आयाम भी जोड़े। जो फिल्म को और खूबसूरत बनाते हैं।
महिला सशक्तिकरण की एक पहचान छाया कदम
इस फिल्म में तीन मुख्य किरदार है। दूल्हा दीपक और दो दुल्हनें फूल और पुष्पारानी। पूरी कहानी इन्हीं के इर्द–गिर्द घूमती है और तमाम अन्य किरदारों से जुड़ती है। जैसे फिल्म में महिला सशक्तिकरण की एक पहचान छाया कदम यानी मंजू माई का किरदार है, जो बहुत कुछ अपने जीवन में झेलने के बाद अपने ही पति को खुद से अलग कर देती है। पुलिस इंस्पेक्टर मनोहर का किरदार रवि किशन निभा रहे हैं, जिन्होंने अपने अभिनय से न सिर्फ फिल्म में जान डाली है, बल्कि दिल ही जीत लिया है।
फिल्म के मेन कैरेक्टर नए हैं और इसलिए इनकी मासूमियत भी आपको पर्दे पर खूब देखने को मिलती है। फिल्म में गांव की ही दो लड़कियों की इच्छाओं और परवरिश को लेकर समाज के सामने एक संदेश देने की कोशिश दिखाई देती है। एक लड़की जो अपने ससुराल को ही अपना सब कुछ मानती है, चूल्हा–चौका ही उसकी पढ़ाई–लिखाई है और वो इसे ही अपने स्वाभिमान के तौर पर देखती है, तो वहीं एक दूसरी लड़की है, जो खूब पढ़ना चाहती है। पढ़–लिख कर अपना नाम बनाना चाहती है। यही उसका सपना भी है और संघर्ष भी।
महिलाओं को हमेशा पितृसत्ता के ही भेंट चढ़ा दिया जाता है
फिल्म का एक सीन आपको महिलाओं के लिए किस तरह हर धर्म में बंदिशें हैं ये भी दिखाता है। जब दूल्हा दीपक अपनी पत्नी फूल की तस्वीर लेकर उसे ढूंढ़ता है, तो एक मुस्लिम धर्म के व्यक्ति ये कहते हैं कि घूंघट सिर्फ महिलाओं का चेहरा ही नहीं उसकी पहचान भी छिपा लेता है। और ठीक उसी समय उनके घर से ही एक बुर्के वाली महिला वहां पहुंचती हैं। यानी धर्म कोई भी हो, महिलाओं को हमेशा पितृसत्ता के ही भेंट चढ़ा दिया जाता है।
फिल्म के कई जगह आपको अनपढ़ दुल्हन फूल की बेबसी पर रोना आता है। आपको लगता है कि कोई इतना बेवकूफ कैसे हो सकता है। लेकिन ठीक अगले ही पल आपको समझ में आ जाता है कि आज भी गांव देहात की लड़कियों की यही सच्चाई है। फिल्म में दूसरी दुल्हन पुष्पा रानी पर आपको कई बार अलग ही संदेह होता है, लेकिन आखिर में इसे लेकर जो ट्विस्ट प्लान किया गया है। वो फिल्म का असली क्लाईमैक्स है।
फिल्म के गाने बिल्कुल भावनाओं और सीन के हिसाब से लिखे गए हैं, और हर एक परिस्थिति में आप इसे कनेक्ट कर सकते हैं। ये एक छोटे बजट की बेहतरीन फिल्म है, जो समाज के लिए कई बड़े संदेश देती है। फिल्म में एक अलग ही सॉफ्टनेस है, जो आपको सब कुछ पर्दे पर असल सा महसूस करने पर मजबूर कर देती है। आप फूल के साथ रोते हैं, तो रवि किशन के साथ खुल कर हसंते भी हैं। ये फिल्म सबको बराबर का स्पेस देते हुए कई कहानियों के तार जोड़ देती है। कुल मिलाकर एक महिला ने महिलाओं को केंद्रित कर एक बेहतरीन फिल्म बनाई है।
इसे भी पढ़ें : यामी गौतम की ‘आर्टिकल 370’ सत्य घटनाओं से प्रेरित काल्पनिक कहानी है!