देश–विदेश में माह–ए–रमजान के पाक महीने की शुरुआत हो चुकी है। ये महीना इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार नौवां महीना होता है, जिसे चांद को देखकर निर्धारित किया जाता है। इस पूरे महीने इस्लाम को मानने वाले लोग सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक उपवास रखते हैं। इस दौरान वो न कुछ खाते हैं और न ही कुछ पीते हैं। हालांकि इस उपवास यानी रोज़े से माहवारी से गुजर रहीं महिलाओं को छूट है।
आपको बता दें कि रमजान के दौरान कुछ नियमों का पालन करना होता है। और इसी के मुताबिक माहवारी से गुजर रही महिलाएं न रोजा रख सकती हैं, न कुरान पढ़ सकती हैं और न ही मस्जिद में जा सकती हैं। इसके अलावा गर्भवास्था, बीमारी, शारीरिक या मानसिक कमजोरी, अधिक उम्र होने, यात्रा पर होने, या किसी अन्य जरूरी कारण से भी रोज़ा छोड़ा जा सकता है।
अलग–अलग धर्मोंं में ‘अपवित्र‘ की संज्ञा
हालांकि ये एक विडंबना ही है कि जिस महावारी के चलते इस संसार में इंसान जन्म लेता है, उसे अलग–अलग धर्मोंं में ‘अपवित्र‘ की संज्ञा से जोड़ दिया जाता है। ये नियम शायद उन दिनों में महिलाओं की कमज़ोर शारीरिक स्थिति को देखकर बनाए गए होंगे, लेकिन अब ये कमज़ोरी से ज्यादा अपवित्रता की नज़रों से देखे जाते हैं।
हिंदू महिलाओं को जिस तरह पीरियड्स में मंदिर जाने और पूजा–पाठ करने से वंचित रखने की कोशिश की जाती है। ठीक उसी तरह मुस्लिम महिलाओं पर भी ऐसे दिनों में कई बंदिशें होती हैं। हालांकि इस सच्चाई को कोई नकार नहीं सकता कि इन दिनों में महिलाओं को खास आराम और ख्याल की जरूरत होती है, जिसके चलते शायद अतीत में कुछ कार्यों से महिलाओं को दूर रखा जाता होगा। लेकिन यकीनन ये कभी भी अपवित्रता का मसला नहीं हो सकता।
आज के इस तर्क पूर्ण ग्लोबल युग में भी कई परिवार ऐसे हैं, जहां महिलाएं अपने पीरियड्स को लेकर खुले विचार नहीं रख सकतीं। वो इस पर बात तक परिवार के सामने नहीं कर सकतीं, क्योंकि उन्हें इसे लेकर शर्मिंदगी महसूस करवाया जाता है। ये महिलाएं रमजान में रोज़े नहीं रख सकतीं, लेकिन परिवार के सामने कुछ खा भी नहीं सकती। क्योंकि उन्हें पीरियड्स की बात बताने में हिचक होती है।
पीरियड्स को लेकर खुले विचार नहीं
पीरियड्स को आज के दौर में भी पितृसत्ता एक कलंक के तौर पर देखती है। जो सिर्फ महिलाओं का मसला माना जाता है। जानकारी के मुताबिक पीरियड्स को अरबी में हैज़ या निफास भी कहते हैं। जैसे ही मासिक धर्म आता है ऐसा मान लिया जाता है कि औरत इस दौरान नापाक हो जाती है, और उसे किसी भी तरह की इबादत करने से रोक दिया जाता है। हालांकि इसके पीछे कई लिबरल मुसलमानों का कहना है कि ये महिलाओं की तबीयत और उन्हेंं आराम देने के लिए बनाया गया नियम है। इसके बाद महिलाएं चाहें तो ईद के बाद उतने दिन के कज़ा रोज़े रख सकती है। लेकिन अगर शुरू रमजान में मासिक धर्म आ जाए और पूरा हो जाए तो उसके बाद पाक साफ होकर महिला रोज़ा रखना और इबादत तिलावत करना शुरू कर सकती है।
गौरतलब है कि धर्म कोई भी हो पितृसत्ता अक्सर पाबंदी लड़कियों पर ही लगाती है। उन्हें लड़कियों की तकलीफ और परेशानी से शायद ही कुछ लेना–देना होता है। वो तो सिर्फ अपने फायदे और अपनी सत्ता को कायम रखने में विश्वास रखते हैं। ये बहुत साफ है कि आज भी सबरीमाला मंदिर में महिलाएं दर्शन के लिए संघर्ष कर रही हैं। वहीं मुसलमान महिलाओं की भी अनेक मामलों में सीमाएं तय की गई हैं। ऐसे में ये कब खत्म होगा और महिलाओं के इन दिनों पर कब खुलकर बात होगी, अभी इसके लिए संघर्ष जारी है।
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