थिएटर की दुनिया का ध्रुव तारा कहे जाने वाले, सफ़दर हाशमी मजदूरों, मजलूमों की सशक्त आवाज़ थे। उनका नाटक ‘औरत’ जन नाट्य मंच का एक ऐतिहासिक नाटक माना जाता है। इसमें महिलाओं की दयनीय परिस्थितियों और और विभिन्न रूपों को प्रस्तुत किया गया है। ये नाटक समाज की पितृसत्तात्मक सोच और रूढ़िवाद की सच्चाई को उजागर करता है। इस नाटक का प्रमुख मकसद ही घर से शुरू हो रहे भेदभाव के प्रति आम लोगों को जागरूक करना था।
इस नाटक के माध्यम से सफ़दर और अन्य लेखकों ने घर में जन्म से ही एक बच्ची, बेटी, पत्नी और मां के संघर्ष को दिखाने की कोशिश की है। कैसे बचपन में बेटे को बेटी की तुलना में ज्यादा प्यार, दुलार और आहार मिलता है, ये किसी से छिपा नहीं है। इसके अलावा एक पत्नी की पति यानी उसके तथाकथित स्वामी के घर में सारी ख्वाइशें ढ़ेर हो जाती हैं। उसकी स्वतंत्रता छीन जाती है, ये इस नाटक ने बखूबी लोगों के समक्ष रखा।
सफ़दर औरत को सिर्फ घर की चारदीवारी में नहीं देखते थे!
सफ़दर औरत को सिर्फ घर की चारदीवारी में कैद, घर–गृहस्थी और बाल–बच्चे को संभालते नहीं देखते। वे औरत को बहुमुखी प्रतिभा का धनी मानते हैं और इसलिए वे उसे उसका जीवन खुलकर मर्दों की भांति जीने के अधिकार के प्रति जागरूक करते हैं। ये नाटक भारत में कामकाजी वर्ग की महिला होने का क्या मतलब है और यह महिलाओं के संघर्षों और मजदूर वर्ग के संघर्षों की सह–निर्भर प्रकृति को भी बताता है।
कहा जाता है कि ‘औरत‘ नाटक के 2500 से अधिक शो और कई भाषाओं में अनुवाद हुए और इसके साथ ही ये जनम का अब तक का सबसे सफल नाटक बना हुआ है। इस नाटक की शुरुआत ‘औरत’ नामक कविता से होती है, जो इस नाटक का मूल आधार है। इस कविता की लेखिका ईरान की क्रांतिकारी कवियत्री मरज़ीह अहमदी ओस्कूई हैं। केशव मालिक के अंग्रेजी अनुवाद को हिंदी में सफदर हाशमी ने बदला। मार्जिया एक शिक्षिका थीं। 1973 में ईरान के शाह के खिलाफ़ हुई बगावत में शाह के सैनिकों ने मार्जिया की गोली मारकर हत्या कर दी थी।
आम सच्चाई को नाटक ने खास बना दिया
इस नाटक की खास बात यही है कि इसमें कुछ भी खास करने कोशिश नहीं की गई। ये आमतौर पर महिलाओं के साथ होने वाली घटनाओं का ही नाटकीय रूपांतर्ण है। जिसमें औरत के हर एक पहलू की झलकियों को दिखाया गया है। इसके साथ ही पूंजीवादी समाज के उत्पीड़न भरा संसार में मजदूर महिला की दुर्दशा के हालात क्या हैं और विशिष्ट रूप क्या है, इसे भी बखूबी दर्शाया गया है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि सदियों से महिला के साथ भेदभाव, गैर बराबरी चलती आ रही है। उन्हें शारीरिक उपभोग की वस्तु समझने की पुरुषवादी सोच को सामने लाकर इस आख्यान में क्षोभ, क्रोध, करुणा और व्यंग्य का सम्मिलित पुट नाटक को रोचक बनाने के साथ–साथ हमें इन पहलुओं पर विचार करने को बाध्य करती है। सफदर का ये आम नाटक अपने आप में खास है, क्योंकि ये सिर्फ नाटक नहीं सच्चाई है।
जनविरोधी नीतियों के खिलाफ सफ़दर की बुलंद आवाज़
ऐसा कहा जाता है कि जैसे ही कोई जनविरोधी फैसला सामने आता, उसके तीन चार घंटों के अंदर सफदर प्ले लिख कर उसका मंचन भी कर डालते थे। सफदर हाशमी ने अपनी जिंदगी में 24 नुक्कड़ नाटकों का 4000 से भी ज्यादा बार मंचन किया। उन्हें मजदूरों की बस्तियों और फैक्ट्रियों के आसपास नुक्कड़ नाटक दिखाए।
सफदर अपने नाटकों के माध्यम से सत्ता हिलाने का दम रखते थे। उनका नाटक कुर्सी, कुर्सी, कुर्सी’ ने उस समय की इंदिरा सरकार पर तगड़े तंज कसे थे। आपातकाल में जब ट्रेड–यूनियंस बुरी तरह टूट गए थे, तब सफ़दर ने नुक्कड़ नाटक ‘मशीन’ के जरिए उनमें जोशो–खरोश भरने का काम किया। इसे दिल्ली में डेढ़ लाख लोगों ने एक साथ देखा था और ये देशभर में हजारों बार खेला गया था।
सफदर को हर ज़ोर–जुल्म के खिलाफ एक संघर्ष की आवाज़ माना जाता है। उनकी कविताएं अंधेरे में रोशनी का प्रतीक कही जाती हैं। उनके शहादत दिवस पर उनकी कुछ पंक्तियां…
पढ़ना–लिखना सीखो ओ मेहनत करने वालो
पढ़ना–लिखना सीखो ओ भूख से मरने वालो
क ख ग घ को पहचानो
अलिफ़ को पढ़ना सीखो
अ आ इ ई को हथियार
बनाकर लड़ना सीखो.