अबॉर्शन को लेकर सुप्रीम कोर्ट अपने ही एक फैसले पर पुनर्विचार क्यों कर रहा है?

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बीते नौ अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट ने एक 27 वर्षीय 26 सप्ताह की गर्भवती विवाहित महिला को उसकी गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति दे दी थी। अब अदालत अपने इस फैसले पर पुनर्विचार कर रहा है। इस गर्भवती महिला ने इसी महीने अक्टूबर में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा ये कहते हुए खटखटाया कि उन्हें कुछ दिन पहले ही अपनी 6 महीने की गर्भावस्था के बारे में पता चला। और अब क्योंकि उनके दो बच्चे पहले से ही हैं और वो एक और बच्चे के पालन पोषण के लिए वित्तीय रूप से सक्षम नहीं हैं, उन्हें गर्भपात की अनुमति दी जाए।

याचिकाकर्ता महिला ने अदालत में ये भी कहा कि वो पिछले साल ही मां बन चुकी हैं और वो गर्भनिरोधक के तौर पर स्तनपान का उपयोग कर रही थीं। स्तनपान गर्भावस्था से 95% से अधिक सुरक्षा प्रदान करता है और इसलिए इसमें पीरियड्स भी नहीं होते। जिसके चलते महिला को अपनी प्रेगनेंसी का पता ही नहीं चला।

अदालत की असमंजस

इस मामले में अदालत को मेडिकल बोर्ड ने बताया था कि भ्रूण सामान्य है और उसके जीवित रहने की उचित संभावना है। हालांकि अदालत ने फिर भी महिला के खराब मानतिक स्वास्थ्य के तर्क को स्वीकारते हुए और अन्य कारणों पर गौर करते हुए नौ अक्टूबर को उसे गर्भपात की अनुमति दे दी थी। लेकिन फिर इसके एक दिन बाद ही मेडिकल बोर्ड के एक डॉक्टर ने सरकारी वकील के माध्यम से कोर्ट से गर्भावस्था को समाप्त करने से पहले भ्रूण के दिल को बंद करने से संबंधित दिशानिर्देश मांगे।

अदालत को भेजे मेल में डॉक्टर का कहना था कि अगर भ्रूण का दिल नहीं बंद किया गया तो यह गर्भपात नहीं बल्कि समय से पहले प्रसव होगा, जहां पैदा होने में और दिक्कतें हो सकती हैं। इसके बाद सरकारी वकील ने कोर्ट से आदेश वापस लेने को कहा, जिस पर चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने तीन जजों की एक बेंच का गठन किया, जो अब इस मामले की सुनवाई कर रही है।

अभी तक इस मामले को लेकर तीनों न्यायाधीशों ने आगे की जांच के लिए महिला को एम्स, दिल्ली भेज दिया है, जिससे भ्रूण के स्वास्थ्य की सही जांच हो सके। इस मामले की सुनवाई अब सोमवार 16 अक्टूबर को होगी। जो बहुत हद तक एम्स की जांच रिपोर्ट पर निर्भर करेगी।

क्या कहता है गर्भपात को लेकर देश का कानून?

भारतीय कानून मेडिकल टर्मिनेशन को देखें, तो ऐसे मामले में जहां गर्भावस्था गर्भनिरोधक के इस्तेमाल के बाद भी हो जाती है, तो ये अपनेआप एक मानसिक सदमा माना जाता है। इसमें गर्भवती महिला को गर्भपात की अनुमति होती है।

गर्भ के मामले में इस तरह 20 सप्ताह से कम में महिला आसानी से गर्भपात करवा सकती है। लेकिन 20-24 सप्ताह के बीच, यह मामला तथ्यों पर निर्भर करता है, जो गर्भपात की अनुमति के लिए जरूरी होते हैं। इसके अलावा अगर सरकारी मेडिकल बोर्ड को भ्रूण में पर्याप्त असामान्यताएं मिलती हैं, तो 24 सप्ताह के बाद भी, गर्भपात कराया जा सकता है।

कई बार अगर डॉक्टर को लगता है कि गर्भवती महिला के जीवन को बचाने के लिए गर्भावस्था को तुरंत समाप्त करना जरूरी है, तो ऐसे में गर्भपात की अनुमति बिना मेडिकल बोर्ड की राय के भी किसी समय दी जा सकती है।

गर्भपात के मामले में भारत एक उदार देश

गौरतलब है कि गर्भपात के मामले में भारत को एक उदार देश माना जाता है। यहां अगर किसी महिला जो कि 20 सप्ताह से कम समय से गर्भवती है, उसे गर्भपात करवाना है तो केवल एक चिकित्सक की सलाह से यह संभव है।

वहीं अगर गर्भावस्था 20 से 24 सप्ताह के बीच है, तो दो डॉक्टरों को जांच के बाद अपनी रिपोर्ट देनी होती होती है, जिस पर गर्भपात का फैसला निर्भर करता है। यहां गौर करने वाली बात है कि 20-24 सप्ताह के बीच गर्भपात का विकल्प केवल कुछ महिलाओं के पास ही है जिसमें, बलात्कार पीड़िता, नाबालिग, मानसिक या शारीरिक रूप से बीमार शामिल हैं। इन सभी मामलों में गर्भपात सरकारी अस्पताल या सरकार से मान्यता प्राप्त जगहों पर आसानी से डॉक्टर्स की निगरानी में हो सकता है।

हालांकि हमारे देश में कई बार गर्भपात को लेकर कई भ्रांतियां भी हैं, जो पितृसत्ता की देन कही जा सकती है। कई बार ऐसी महिलाओं को सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है तो वहीं ऐसा करने वाली महिलाओं को अपराधी तक घोषित कर दिया जाता है। यहां ये भी ध्यान देने वाली बात है कि भारत में मातृत्व मृत्यु का तीसरा सबसे बड़ा कारण असुरक्षित गर्भ समापन ही है। यानी कई महिलाएं इसकी जद्दोजहद में अपना सबकुछ खो देती हैँ।

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