“स्त्रियां सिर्फ रसोई और खेत पर काम करने के लिए नहीं बनी है, वह पुरुषों से बेहतर कार्य कर सकती हैं।“
ये पंक्तियां महिला अधिकारों की प्रबल आवाज़ देश की प्रथम महिला शिक्षक और समाज सुधारक सावित्री बाई फुले की हैं। सावित्री बाई ने महिलाओं की शिक्षा और साक्षरता के लिए बड़े संघर्ष किए। उन्होंने न सिर्फ रूढ़िवादी और पिदरशाही को चुनौती दी बल्कि अनेक दिक्कतों का सामना करते हुए महिलाओं की आज़ादी के नए रास्ते भी तलाशे। उन्हें दलितों में शिक्षा के प्रचार–प्रसार के लिए भी विशेष तौर से जाना जाता है।
सावित्रीबाई मानती थीं कि मनुष्य को निंदा से डरे बिना काम करते रहना चाहिए। उन्होंने अपने इस सिद्धांत को जीवन भर अपने साथ पूंजी की तरह रखा। जिस समय महिलाओं की पढ़ने–लिखने तक की पहुंच लगभग शून्य थी, सावित्रीबाई ने उस समय अपने पति ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर लड़कियों का पहला स्कूल खोला। उन्होंने एक–एक कर लड़कियों के लिए कुल 18 स्कूल खोले। उनके द्वारा स्थापित अठारहवां स्कूल भी पुणे में ही खोला गया था।
सावित्री बाई समय से आगे चलने की एक मिसाल थी। वे जब पढ़ाने के लिए स्कूल जातीं, तो रूढ़िवादी लोग उनके इस कदम से नाराज़ होकर उनपर पत्थर और गोबर फेंका करते थे। लेकिन, वह कभी पीछे नहीं हटी, वह पढ़ाने जाते हुए अपने साथ एक और साड़ी लेकर जाने लगी। जब उन पर पत्थर और गोबर फेंके जाते तब सावित्रीबाई फूले कहती थी, “मैं अपनी बहनों को पढ़ाने का काम करती हूं, इसलिए जो पत्थर और गोबर मुझपर फेंके जाते हैं वे मुझे फूल की तरह लगते हैं।”
पढ़ाई के प्रति जज़्बे को लेकर सावित्रीबाई के एक बचपन का किस्सा मशहूर है। ऐसा कहा जाता है कि एक बार बचपन में जब सावित्रीबाई अंग्रेज़ी की एक किताब के पन्ने पलट रही थी तब उनके पिताजी ने देख लिया। और फिर वो किताब उनके हाथ से छीन ली। हालांकि आगे चलकर ज्योतिबा फुले की मदद से सावित्रीबाई ने शिक्षा हासिल की और खुद शिक्षिका भी बनी। और इसलिए उन्होंने अपना पूरा जीवन शिक्षा के अधिकार को हर उस व्यक्ति तक पहुंचाने में लगा दिया, जिन्हें इससे वंचित रखा जाता। उन्हें भारत में नारीवाद की पहली मुखर आवाज़ भी माना जाता है। वे एक समाज सुधारिका और मराठी कवयित्री भी थीं।
फुले दंपति की साझेदारी और सामाजिक बदलाव की कहानी
सावित्रीबाई और उनके जीवन साथी ज्योतिबा फुले आजीवन सामाजिक कुरीतियों से लड़ते रहे। दोनों पति–पत्नी छुआ–छूत, सती प्रथा, बाल–विवाह, शिक्षा व्यवस्था में सामाजिक भेदभाव के विरुद्ध संघर्ष करते रहे। सावित्रीबाई बाल विवाह के खिलाफ मुखर थीं और महिलाओं के अधिकारों की वकालत करती थीं। वह इंटरकास्ट मैरिज और विवाहपूर्व गर्भधारणा को गुनाह नहीं मानती, बल्कि वह ऐसी लड़कियों के साथ मजबूती से खड़ी रहती थीं। उन्होंने ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर अनाथ और बेसहारा बच्चों के लिए पुणे में एक अनाथालय की स्थापना भी की। यह संस्था अनाथ बच्चों को उनकी जाति या पृष्ठभूमि की परवाह किए बिना घर और शिक्षा प्रदान करती थी।
सावित्रीबाई ने 1890 में जब ज्योतिबा फुले का अंतिम संस्कार भी खुद ही किया था। ये प्रथा आम तौर पर हमारे समाज में पुरुष द्वारा ही की जाती है, लेकिन सावित्री बाई ने इस भेदभाव को सिरे से नकार दिया। पति की मौत के बाद भी सावित्रीबाई फुले ने समाज सुधारक की अपनी जिम्मेदारी बख़ूबी निभाई और 10 मार्च 1897 में प्लेग से पीड़ित बच्चों की देखभाल करते समय खुद इस बीमारी के गिरफ्त में आकर उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। हालांकि आज भी उनके विचार हमारे बीच अमर हैं और सालों साल रहेंगे।
सावित्रीबाई कहती थीं, “स्वाभिमान से जीने के लिए पढ़ाई करो, पाठशाला ही इंसानों का सच्चा गहना है।“