“जिस दिन औरतें अपने श्रम का हिसाब मांगेंगी, उस दिन मानव इतिहास की सबसे बड़ी और सबसे पुरानी चोरी पकड़ी जाएगी।”
रोजा लक्जमबर्ग की ये पंक्तियां हमारे समाज की एक गंभीर सच्चाई को उज़ागर करती हैं, जहां महिलाओं के घरेलू श्रम को एकदम से नकार दिया जाता है। पूरा दिन घर के कामों में लगे रहने के बावजूद उन्हें ताने दिए जाते हैं कि तुम करती ही क्या हो। कई बार उन्हें आलसी, मुफ्त की रोटियां तोड़ने वाली जैसे अपमान भी बर्दास्त करने पड़ते हैं।
पितृसत्तात्मक समाज में मर्दों को हमेशा से कमाने वाला, घर की जिम्मेदारियां उठाने वाला या मालिक जैसी उपाधियां दी गई हैं। वहीं बात जब औरतों की आती है, तो उन्हें पूरे दिन घर में करना ही क्या है या इन लोगों से बस का है ही क्या जैसे डायलॉग सुना दिये जाते हैं। ये मर्द और औरत या यूं कहें मालिक और गुलाम की सोच का असली बीज वहीं पड़ जाता है, जहां मर्द औरत को खुद से कमतर आंकने लगता है।
ये इस सोच की ही देन है कि मर्द औरत को कमाता हुआ नहीं देखना चाहता, या अगर कमा भी रही है, तो ज्यादा कमाई या ओहदे पर न हो। कोई लड़की अगर बॉस है, तो उसके ऑर्डर फॉलो करने में समस्या हो जाती है, क्योंकि खुद तो घर पर औरतों पर ऑर्डर चलाने की आदत जो रही है। कोई औरत अगर अपनी जिंदगी में आगे बढ़ रही है, तो उसे पीछे धकेलने की हर कोशिश पितृसत्तात्मक समाज करता है।
परवरिश ही पितृसत्तात्मक होती है
ऐसा नहीं की ये सभी घरों का हाल है, लेकिन ये सच्चाई बहुत घरों की जरूर है। और इसमें भी कोी दो राह नहीं कि इसकी शुरुआत घर से ही बचपन से ही परवरिश में झलकने लगती है। ज्यादातर घरों में लड़कियों से घर के काम करवाये जाते हैं, जबकि लड़के खुद से एक गिलास पानी का भी नहीं उठाते। लड़कियों को पढ़ाई से लेकर पोषण तक हर जगह लड़कों के बाद ही तवज्जो मिलती है। चाहे उनमें कितनी भी काबिलियत क्यों न हो।
महिलाओं के आधिकारिक वर्क फोर्स की बात करें तो, कोरोना काल के बाद इसमें जबरदस्त गिरावट देखी गई थी। इस दौरान उनके साथ घरेलू हिंसा की वारदातें भी बढ़ी थीं। महिलाओं पर वर्क पॉर्मम होम और अपने घर के होम वर्क की दोहरी जिम्मेदारी आन पड़ी थी। और शायद यही कारण था कि महिलाएं बेरोज़गार हो गईं और फिर कोविड के बाद भी काम पर नहीं लौट सकीं।
वैसे एक महिला के जीवन में संघर्ष तो हमेशा ही चलता रहता है, मायके–ससुराल की जिम्मेदारी, पूरे घर की देखभाल, बच्चों का पालन–पोषण और सबकी 24 घंटे वाली परमानेंट मेड। ये सब महिलाओं की जिंदगी है, जिसका उन्हें कोई भुगतान नहीं किया जाता। उन से इसके उलट एहसान फरामोशी की जाती है। उन्हें ही कुछ नहीं करती जैसे ताने दिए जाते हैं। जबकि इन सब कामों का बोझ उसे जिम्मेदारी की आड़ में ढोना पड़ता है। जो औरत ऐसा नहीं करती, उसे घर तोड़ने वाली, रिश्तों की कदर नहीं करने वाली, घमंडी, डायन और चुडैल न जाने क्या–क्या कहकर बदनाम करने की पूरी कोशिश की जाती है।
सदियों से अधिकारों के लिए संघर्ष
महिलाएं सदियों से अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही हैं। लेकिन उनका नारीवाद भी कई पुरुषों को खटकता है, वो उसे भी एक अलग नज़रिए से देखते हैं, क्योंकि ये उनके सत्ता को चुनौती जो देता है। एक महिला जब अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाती है, तो न जाने कितनी हिम्मत की जरूरत होती है। और जब वो हिम्मत उस में आ जाती है, फिर वो हर ज़ोर जास्ती का खुलकर विरोध करती है, जो पितृसत्ता की सोच वाले मर्दों को बिल्कुल अच्छी नहीं लगती।
हालांकि अब महिलाएं आगे बढ़ रही हैं, अपने लिए आवाज़ बुलंद कर रही हैं और अब जुल्म को सहने से भी इंकार कर रही हैं। ये अभी शुरुआत है, लेकिन अच्छी है क्योंकि अपने अधिकारों के लिए लड़ना महिलाओं को और मजबूत बनाता है। उन्हें आत्मनिर्भर होने की शक्ति प्रदान करता है। अपने फैसले लेने का हौसला देता है, साथ ही कानून के जरिए अपने हक़ को और मजबूत करने का रास्ता भी दिखाता है।
image credit- Feminism in India